यादों के सफर में By tanveer ahmad2020-02-25

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25-02-2020-
आज जब मैने अपनी अलमारी से सारा सामान बाहर निकाला, उसी में रखी एक कपड़े की पोटली जिसमें मेरी अज़ीज, मेरे जिगर का  वह  टुकड़ा,  जिसे कभी भी मैने अपने आप से जुदा ना किया- मेरी डायरी आज भी उसका हर  एक सफ़ा महफ़ूज़़ उस पर लिखा  हर लफ्ज़ मोतियों की तरह बिने एक माला में सिमटे नजर आए। पहली बार अपनी यादों को समेटे अपनी डायरी पर उतारा गया हर  लम्हा आखों के सामने  आ खड़ा हुआ। आज भी मुझे याद है कि कैसे दिन भर के वाकियों को डायरी पर लिखने के लिए रात का इन्तज़़ार रहता था और फिर उसी डायरी को सबकी नज़रों से छुपा कर रखना। वह  भी क्या दिन हुआ करते थे। यह मेरी पहली डायरी है जिसमें मैने पहली बार पार्क कि सैर  का  ज़िक्र लिखा- मैं और मेरी दादी रात के आराम के बाद, नई ताज़गी  और उमंग से भरी सुबह - मुझे याद है जब घर से बाहर पार्क में सैर के लिए जा रही थी, हल्की-हल्की सर्द हवा चल रही थी मानो कुदरत अंगड़ाई ले रही हो। पार्क के दरवाज़े पर पहुँची ही थी कि मेरी नज़र कतारों में लगे पेड़-पौधों पर पड़ी, कलियाॅं खिलकर फूलों का  रूप धारण  कर  रही थी, घास पर ओस की बूंदें कुछ इस तरह दिखाई दी मानों खुदा ने खुद अपने हाथों से एक-एक मोती बिछा रखे  हांे,  तभी  चिड़ियों का चह-चहाना और वहाँ आए सभी लोगों का  इस्तकबाल करना, झूमते लहलहाते पेड़ पौधों को देखकर मन खुशी से झूमने लगा, फूलों पर मंडराती तित्लियां और ऊॅचंे दरखतों पर बैठी कोयलों ने मधुर तान छेड़ी तो वहाॅ आई छोटी बच्चियों के मुॅह से कूह कूह...........की आवाज़ सुनाई दी। चहे बच्चियाॅ हो, किशोरियाॅ हो या हो बुजुर्ग ख़वातीन सभी अपनी सेहत के फायदे के लिहाज़ से आए ज़नाना पार्क में एक साथ सैर का मज़ा उठाते नज़र आए। हर कोई अपनी तेज़ रफ्तार से चलता जा रहा था, मालूम हो कि वहाॅ आया हर कोई किसी दौड़ में हिस्सा ले  रहा  हो। बहर-हाल मैं भी उसी भीड़ का हिस्सा बनी।  हरी-भरी  मख़मली घास पर नंगे पाॅव चलना हर किसी ने उस लम्हें भर की खुषी  का एहसास पाया और फूलों की खुषबू से किसकी साँसों में ताज़गी ना आई होगी। थोड़ा चले, थोड़ा दौड़ लगाई, कुछ ने खुली जगह पर हल्की कसरत कर ली, तो बच्चियां हाथों में लिए गंेद व रस्सी कूद करती दिखाई दीं, और बुजुर्ग ख़वातीन लाठी के सहारे पग-पग बढ़ा  रही थीं कदम, तो कुछ मोटे लोग अपना मोटापा घटाने में लगे और गृहणियाॅ यह सोचती कि दिन भर घर में ही रहना है तो चलो कुछ देर मैं भी सैर कर लेती। इन सभी बातों ने एक बार फिर मेरी यादों के खूबसूरत लम्हों को याद दिला दिया। मेरी डायरी के अगले सफे पर मैने जनाना पार्क की ख़ासियत के बारे  में लिखा। जिसने मुझे अपनी ओर खींचनें और लिखने  को  मजबूर किया। दादी कहती है ंिक यह एक ऐसा पार्क है जहाॅ मर्दों की मनाही है। यही वजह है कि यहाॅ आई छोटी बच्चियाँ और किशोरियाँ हो या ख़्वातीन हर कोई खुलकर साॅस ले सकती है जैसे चाहे बैठे, दौड़ लगाए, किसी का डर  नहीं। यही इस पार्क  को और पार्कों से अलग भी  रखता है और यहां आने वाली हर बच्ची और ख्वातीन अपने आपको  महफूज़ समझती है। यह बात मैं इस लिए बता रही हूँ, कि आज भी हमारी बहुत सी ख़वातीन इस पार्क के बारे में नही जानती। अपनी बात को आगे कहते हुए यह कहना ग़लत ना होगा कि - ’’कशिश-ए-लखनऊ अरे तौबा फिर वही हम, वही अमीनाबाद‘‘ यगान चंगेजी के इस शेर से आप सभी वाकिफ़ होंगे  और अमीनाबाद की इससे खूबसूरत तारीफ़ क्या होगी। जी हाॅ दुनियाॅ में कुछ ही ऐसे शहर होगें जिनकी पहचान एक नहीं कई रूपों में की जाती  है और उन शहरों में शुमार है अपना शहर-ए-लखनऊ। हमारा लखनऊ शहर अपनी तहजी़ब, नज़ाकत और नफ़ासत के लिए जाना  जाता है, वही दूसरी ओर इसे बागों का शहर और मौजूदा दौर  में  इसे स्मारकों का शहर भी कहा जाता है। आज जब मै इस पार्क कि ओर देखती हूॅं तो मुझे-अवध की सभ्यता खासकर लखनऊ का  सांस्कृतिक  परिवेश जो पूरी, दुनियाॅ के लिए कौतुहल का विषय रहा, और अमीनाबाद जिसे हमेशा से ही लखनऊ शहर का दिल काह गया, आज उसी नवाबों के शहर लखनऊ के अमीनाबाद में स्थित ज़नाना पार्क जो अपने आप में एकलौता पार्क जिसने उस दौर को भी देखा जब यहाॅ ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेने इकट्ठा हुई यहाॅ की ख़्वातीन। दादी ने यह भी बताया कि यही वह पार्क है जो  जंग-ए-आज़ादी  के दौरान लखनऊ की खवातीनों के जज़्बे की कहानी बखूबी बयां करती है। वह भी क्या दौर था साल 1920  में जब महात्मा गाॅधी लखनऊ  आए  थे,  कहते  है  गाॅधी जी  की ख्वाहिश  थी कि यहाॅ  की  ख़वातील घरों से बाहर निकले और आज़ादी के आंदोलन में अपना योगदान दें। साथ ही उनके लिए एक जगह ऐसी हो जहाॅ-यहाॅ की ख़वातीन इकट्ठा होकर आगे आए, उनकी यह मंशा पूरी की उस वक़्त के कुलीन समाजसेवी बाबू  गंगा प्रसाद वर्मा  जी ने, उन्होने अपने  पैसों से  जनाना पार्क के लिए जमीन खरीदी और यह उनकी दरियादिली थी कि यह जम़ीन उन्होने बज़्म-ए-ख़वातीन को दान कर दी। और साल 1934 ई0 में यह जनाना पार्क बनकर तैयार हुआ। आपको यकीन नहीं होगी लखनऊ की हर खास-ओ-आम घरों की महिलाएं यहाॅ आती है। आज़ादी के आंदोलन का ही नही, भारत-चीन युद्ध में भी इस पार्क से देश के सैनिकों का मनोबल बढ़ाया गया और साल 1962  ई0 में  महिलाओं  ने ज़नाना पार्क से लेकर मोती महल लाॅन तक मार्च किया। ऐसा पहली बार हुआ कि महिलाएं सड़क पर उतरी, वे हजारों की तादाद  में  थी और  नारे लगा रही थी- ’‘हमें भी लड़ने दो‘‘‘। संजोग से उस वक्त पं0 जवाहर लाल नेहरू लखनऊ में ही थे। जनाना पार्क से गई महिलाओं ने ज्ञापन सौंप कर युद्ध में जाने की इजाज़त भी माॅगी। आज यह पार्क अपने पुराने वजूद को पाने कि एक और लड़ाई लड़ रही है।ज़नाना पार्क में हर महीने की 15 तारीख को दिन में दो बजे से शाम पाॅच बजे तक महिलाओं कि महफ़िल जमती, इस  महफ़िल में तरह-तरह  के कैंप के अलावा महिलाओं कीे काउंसलिंग होती जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, कानूनी अधिकार जैसे विषयों पर  उनको जागरूक किया  जाता है, आज यह पार्क अपनी हालत पर बहुत शर्मिन्दा  होता है और  मै भी क्योंकि जिस खुशनुमा माहौल का मैंने शुरू में जिक्र किया वह खूबसूरती उस से रूठ गई। मैं वही हूं पर मेरे कपड़े और जे़वर मुझसे ही मेरे अपनों ने छीन लिया है क्यांेकि अब मुझमें वह पहले जैसी  खूबसूरती नहीं रही  इसलिए लोगों ने मेरे अस्तित्व को मिटाना चाहा फिर भी  कुछ  लोग  आज भी मेरा वज़ूद बचाने में लगे है यहाॅ की ख़वातीन जो हर  महीने की 15 तारीख को इकट्ठा होती, अपना कीमती वक्त मेरे साथ बिताती, हंसी ठिठोली करती, कुछ काम की बाते करती और यहाॅ आए सभी को जागरूक भी करती पर कुछ वक्त बिताने के बाद मुझे  मेरे  हाल  पर  छोड़ कर चली जाती। नगर निगम और बाकी जनता मेरा फिर से मजाक बनाती। आज मै खुद भी अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही हूॅं आईए आगे बढ़िए और एक बार फिर से मुझे मेरी पहचान दिलाने में मेरी मदद करिए।

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