जीवन में प्रकाश प्राप्त करना हो तो दीक्षा संस्कार आवश्यक है - पूज्यश्री प्रेमभूषण जी महाराज By tanveer ahmad2025-01-07
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07-01-2025-
मुम्बई। सनातन संस्कृति में दीक्षा संस्कार को आवश्यक बताया गया है। आजकल लोग स्वयं को ही गुरु मान बैठे हैं तो दीक्षा क्यों लेंगे? वास्तव में "गुरु " कोई व्यक्ति नहीं होता गुरु तत्व होता है। जो अंधकार को भी प्रकाशित कर दे उसे गुरु तत्व कहते हैं।
उक्त बातें मुंबई महानगर के नालासोपारा स्थित नवदुर्गा ग्राउंड में आयोजित मानस महाकुंभ में श्री राम कथा का गायन करते हुए आठवें दिन पूज्य श्री प्रेमभूषण जी महाराज ने व्यासपीठ से कथा वाचन करते हुए कहीं।
सरस् श्रीराम कथा गायन के लिए लोक ख्याति प्राप्त पूज्य श्री प्रेमभूषण जी महाराज ने भगवान के वन प्रदेशों की मंगल यात्रा से जुड़े प्रसंगों का गायन करते हुए कहा कि गुरु बनाया नहीं जा सकता है। गुरु तत्व की उपस्थिति से गुरु होते हैं। हम गुरु की शरण में जाते हैं। मंत्रदीक्षा उसी से लो जिसका मार्गदर्शन लेने आप आ जा सको। दीक्षा एक ऐसा संस्कार है जिससे मनुष्य जीवन में चैतन्यता आ जाती है। सत्य शाश्वत और कड़वा है और कड़वा ही फायदेमंद होता है। इसलिए सत्य सुनने का अभ्यास करना चाहिए। सत्य श्रेष्ठ है जिससे झूठे सदा घबड़ाते हैं।
पूज्य श्री ने कहा कि मनुष्य जब कथा में रमने लगता है तभी उस कथा भी समझ में आने लगती है। संसार का सुख शाश्वत नहीं है क्योंकि एक दिन यहां से जाना है और कुछ भी नहीं लेकर जाना है। फिर हम क्यों ना इस संसार को बनाने वाले में लगें। जिससे यह संसार है वहीं इसका सार है। भगवान की अगर हम एक कदम चलने का प्रयास करते हैं तो वह हमारे और स्वयं बढ़कर हमारा हाथ थाम लेते हैं। युवा पीढ़ी को योजना तैयार करके अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ना चाहिए। पुराणों में वर्णन आता है कि भगवान ने धरती से आसुरी शक्तियों को समाप्त करने के लिए 31 चौकियाँ तैयार करी थी।
पूज्यश्री ने कहा कि जब मन पर कलिमल का प्रभाव हो तो चाह कर भी मनुष्य सत्कर्म के पथ पर आगे नहीं बढ़ पाता है। मनुष्य का मन और उसके बुद्धि उसके अपने कर्मों के अधीन है। हम जो भी कर्म करते हैं उसे हमारा क्रियमाण बनता है। यही कर्म फल एकत्र होकर संचित कर्म होता है और फिर कई जन्मों के लिए यह प्रारूप प्रारब्ध के रूप में जीव के साथ जुड़ जाता है। सत्कर्मों से जिसने भी अपने प्रारब्ध को बेहतर बना रखा है, इस जन्म में भी सत्कर्मों में उसी की गति बन पाती है । अन्यथा बार-बार विचार करने के बाद भी हम उस पथ पर अपने को आगे नहीं ले जा पाते हैं।
पूज्य श्री ने कहा कि मनुष्य को अपने पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर संचित प्रारब्ध को भोगना ही पड़ता है उसके अनुसार ही उसे इस जन्म में माहौल मिलता है। मृत्यु के बाद हमें हमारे कर्म के अनुसार ही लोक मिलता है। यह सनातन सद्ग्रन्थों में वर्णित है कि अधर्म पूर्वक जीवन जीने वाले को मृत्यु के बाद यमलोक मिलता है और सत्कर्म करते हुए संसार से जाने वाले को प्रभु का लोक मिलता है।
सनातन धर्म और संस्कृति में मनुष्य के लिए इस लोक और परलोक में भी सुख प्राप्ति के लिए प्रभु के चरणों की उपासना के अलावा अन्य कोई साधन नहीं है। परम तत्व की उपासना ही एकमात्र साधन है। मनुष्य के लिए यह भी एक विडम्बना ही है कि वह अपने कर्म के परिणाम के रुप में प्राप्त होने वाले दुख के लिए भी कभी-कभी भगवान को ही दोषी ठहरा देता है।
महाराज जी ने कहा कि हर व्यक्ति में अलग-अलग प्रकार की योग्यता है। अपनी योग्यता का आकलन करके ही कर्म करना चाहिए। योग्यता नहीं होने पर उत्तरजीविता नहीं हो पाती है। भरत भैया ने इसीलिए रामचंद्र जी की जगह अयोध्या जी का राज सिंहासन संभालने से मना कर दिया था। मनुष्य जब अपनी योग्यता से भी अधिक प्राप्ति के लिए जुगत लगाने का प्रयास करता है तो वह असफल होता है। इसके लिए भगवान को दोष कैसे दिया जा सकता है?
पूज्यश्री ने कहा कि जीवन मे भक्ति नहीं है तो फिर जीवन में कुछ भी नहीं है। आप अगर भगवान की कृपा चाहते हैं तो उनसे कोई संबंध अवश्य स्थापित करें। क्योंकि मनुष्य वहीं आता जाता है जहां उसका संबंध होता है। और अगर हम भगवान की बात करें तो वह मनुष्य के साथ केवल एक ही नाता मानते हैं वह है भक्ति का नाता है। भगवान को जाति-पाती, कुल, धन, प्रतिष्ठा अथवा विद्वता से कुछ भी लेना देना नहीं है। माता शबरी से स्वयं भगवान ने बताया कि मनुष्य के साथ हमारा केवल भक्ति का ही संबंध होता है।
भगत का कुछ भी अपना नहीं होता है। सब भगवान का ही होता है और वह अपने को प्राप्त हर वस्तु को भगवत कृपा के प्रसादी ही मानकर चलता है।
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