स्वीट, सिंपल और संजीदा लव स्टोरी के साथ हाज़िर है सुशांत सिंह राजपूत की आखिरी फ़िल्म By एजेंसी2020-07-25

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25-07-2020-नई दिल्ली। \'जन्म कब लेना और मरना कब है ये हम डिसाइड नहीं कर सकते, लेकिन कैसे जीना है वो हम कर सकते हैं।\' सुशांत सिंह राजपूत की आखिरी फ़िल्म \'दिल बेचारा\', मूवी के इस डायलॉग के इर्द-गिर्द रची-बुनी गई है। यह सुशांत सिंह आखिरी फ़िल्म है, लेकिन बेस्ट नहीं है। लेकिन फ़िल्म देखने के बाद इस बात का अहसास होता है कि शायद बेस्ट आना अभी बाकि था। बेस्ट हो ना हो, लेकिन \'दिल बेचरा\' एक अच्छी और संजीदा फ़िल्म है। कहानी यूं हैं कि जमशेदपुर में एक बंगाली फैमिली रहती है। इस फैमिली की लड़की है कीज़ी बासु। कीज़ी को थाइरॉयड कैंसर है और अपने साथ हमेशा एक ऑक्सीज़न सिलेंडर लेकर घूमती है। एक लड़का है, इमैन्युल राजकुमार जूनियर उर्फ मैनी। मैनी एक दिल फेंक लड़का है। उसे लाइफ़ में सिर्फ खुश रहना आता है। यह खु़शी धीरे से एक दिन कीज़ी बासु ज़िंदगी में उतर जाती है। एक था राज और एक थी रानी, कहानी इससे कहीं आगे की है। इस प्यार के बाद फ़िल्म की कहानी में कई मोड़ आते हैं। एक सिंगर की तलाश में मैनी, कीज़ी और उसकी मां के साथ पेरिस भी जाता है। लेकिन पेरिस से लौटने के बाद फ़िल्म बिल्कुल दूसरे करवट बदल जाती है। ट्रेलर में जितना दिखाया गया है, कहानी में उससे कहीं ज़्यादा सरप्राइस देखने को मिलते हैं। लेकिन इस सरप्राइज को देखने के लिए भी आपको फ़िल्म देखनी होगी। \r\nक्या है ख़ास\r\n.फ़िल्म कहानी में लव स्टोरी है। इससे पहले भी आप ऐसी लव स्टोरी बॉलीवुड फ़िल्मों देख चुके हैं। इसके बावजूद भी आप इसे देखकर बोर नहीं होते हैं। ओटीटी पर रिलीज़ होने की वज़ह से इंटरवल में भी ब्रेक लेने की जरूरत महसूस नहीं होती है। कहानी अपनी पूरी रफ़्तार से चलती है। .सुशांत सिंह राजपूत ने जाते-जाते अपनी अदाकारी से दिल जीतने वाला काम किया है। वहीं, संजना संघी के लिए बतौर लीड एक्टर यह पहली फ़िल्म है। वह काफी क्यूट और अपने किरदार में जमती भी हैं। पाताल लोक की स्वास्तिका मुखर्जी ने कीज़ी का मां का किरदार निभाया है। उनकी एक्टिंग भी अच्छी लगती है। इसके अलावा शाश्वत चटर्जी और साहिल वेद की स्क्रीन प्रजेंट आकर्षित करने वाली है। वहीं, बीच में सैफ अली ख़ान को देखना मजेदार लगता है। .एक्टिंग इसलिए अच्छी लगती है, क्योंकि कास्टिंग काफी सही है। मुकेश छाबरा के कास्टिंग का अनुभव फ़िल्म में देखने को मिलता है। ख़ासकर कीज़ी के लिए संजना और कीज़ी के फादर के लिए शाश्वत का चुनाव बिल्कुल सटिक लगता है। .फ़िल्म का संगीत भी काफी मधुर है। ए आर रहमान का जादू देखने को मिलता है। वहीं, बैंकग्राउंड में बजने वाला अधूरा गाना पूरा फील देता है। हालांकि, अंत तक पहुंचते-पहुंचते आप फ़िल्म में इतने घुस जाते हैं कि लिरिक्स पर ध्यान नहीं जाता है। फ़िल्म ख़त्म होने के बाद सिर्फ मुस्कान और म्यूज़िक आपके साथ रह जाती है। फ़िल्म में लोकेशन, लाइटिंग और कैमरा का इस्तेमाल भी काफ़ी सही किया गया है। \r\nकहां रह गई कमी\r\n.कमी कहना सही नहीं है। हालांकि, फ़िल्म कुछ जगह रुकती है। ऐसा लगता है कि अगर कुछ पैमानों पर और कसा जाता, तो रचना काफी बेहतर बन सकती थी।

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